Friday, November 26, 2010

पशुबलि-कुरबानी , शाकाहार-मांसाहार , वैचारिक बहस- फ्री फॉर ऑल धर्मयुद्ध. : प्रवीण शाह

पशुबलि-कुरबानी , शाकाहार-मांसाहार , वैचारिक बहस- फ्री फॉर ऑल धर्मयुद्ध... बीचों-बीच फंसे हम और जेहन से उठते ११ सवाल... क्या उत्तर देंगे आप ? 

मेरे ' उत्तरदाता ' मित्रों, आज और कुछ नहीं...
बस यह ग्यारह सवाल...

 क्या यह सही नहीं है कि जीव-दया व मांसाहार निषेध के संबंधित आलेखों की बाढ़ ब्लॉगवुड में बकरीद के आस-पास ही आती है, जबकि थैंक्सगिविंग डे के दिन भी लाखों टर्की पक्षी बाकायदा भूनकर GOD को धन्यवाद देते हुऐ खा लिये जाते हैं बाकायदा customary 'Turkey Song' गाते हुए, और कहीं कोई पत्ता भी नहीं हिलता ?

क्या यह सही नहीं है कि बकरीद के दिन दी जाने वाली बकरे की कुर्बानी और रोजाना हलाल मीट की दुकान पर बिकते बकरे को मारने का तरीका बिलकुल एक जैसा ही है ?

क्या यह सही नहीं कि इस तरह के आलेख लिखने वाले महानुभावों का अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में न तो कोई मुस्लिम मित्र होता है न ही मुस्लिम समाज से उनका कोई संबंध होता है, यदि होता तो उन्हे यह ज्ञान हो जाता कि दया, ममता, करूणा आदि सभी मानवीय भावनायें एक मुसलमान के अंदर भी उतनी ही हैं जितनी उनके भीतर, आखिर हैं तो सभी इंसान ही ?

क्या यह सही नहीं कि ' फ्राइड चिकन चंक्स ' को बड़े शौक से खाने वाले कुछ लोग चिकन को काटना तो दूर कटते देख भी नहीं सकते क्योंकि उन्हें अपनी पैंट गीली करने का डर रहता है ?

 क्या यह सही नहीं है कि आज भी किसी पार्टी या दावत में यदि कोई नॉनवेज पकवान बना होता है तो सर्वाधिक भीड़ उसी काउंटर पर होती है ?

क्या यह सही नहीं है कि प्रागैतिहासिक काल, पुरा पाषाण काल से लेकर आधुनिक काल तक मानव जाति अपना वजूद समूह में शिकार कर प्राप्त किया भोजन ग्रहण कर ही बचा पाई है, और इसी सामूहिक शिकार की आवश्यकताओं के कारण भाषा व कालांतर में मानव मस्तिष्क का भी विकास हुआ ?

 क्या यह सही नहीं कि आततायी और आक्रमणकारी के द्वारा किये जा रहे रक्तपात को रोकने के लिये भी जवाबी रक्तपात की आवश्यकता होती है ?

क्या यह सही नहीं है कि कुछ मध्यकालीन अहिंसावादी, जीवदयावादी धर्मों-मतों के प्रभाव में आकर भारतीय जनमानस इतना कमजोर हो गया था कि हम कुछ मुठ्ठी भर आक्रमणकारियों का मुकाबला न कर पाये और गुलाम बन गये ?

क्या यह सही नहीं है कि आज के विश्व में लगभग सभी विकसित या तेजी से विकसित होने की राह पर बढ़ते देशों व उनके निवासियों में मांसाहार को लेकर कोई दुविधा या अपराधबोध नहीं है ?

क्या यह सही नहीं है कि आहार विज्ञानी एक मत से यह मानते हैं कि आदर्श संतुलित आहार में शाकाहार व मांसाहार दोनों का समावेश होना चाहिये ?

और क्या यह भी सही नहीं है हम चाहे शाकाहारी हों या मांसाहारी, By birth हों या By choice , दोनों ही स्थितियों में हमें कोई ऐसा ऊंचा नैतिक धरातल नहीं मिल जाता कि हम दूसरे को उसके आहार चयन के कारण उसे सीख दें या उसे अनाप-शनाप, आसुरी स्वभाव वाला या पशुवत कहें ?


क्या आप उत्तर देना चाहेंगे इन सवालों का ?
आभार!


साभार
सुनिए मेरी भी 

4 comments:

Unknown said...

Really thinkable questions... nice analysis.. Many people seem to cry against this non-veg issue and creating havoc irrelevantly just because they need to be in attention of people.. i use to call them as a patient of "attention seek disorder".. Mostly when such issues are risen, i have seen many hindu brothers to support in favor of havoc, but i dnt understand for what they are protesting..?? we can see almost all the Gods and Goddesses of Hindu religion as most of them either sit on the skin of tiger or leopard or on birds or snakebeds.. most of them can be seen holding many fatal bleeding arms.. then also for what they are protesting..? first they need to clean their home...

Anonymous said...

yese befkufi wale lekh ko muslim hi padege aur wahi tareef karege ,tumare jaise chutiyo ki kami nhi hai .....na to doc na hi vighya na dhrm is baat ko sahi mante hai

jr... said...

sahi kaha Bharat Saheb,
Inka kuch nahin ho sakta..khud ko Dr.likhne wale ye sab kutte ki poonch ki tarah hi hai...kal ko main bhi dhundun ke koran me kya likah hai to inki jal jayegi...

Abe bade ho jayo ...

सुज्ञ said...

प्रवीण शाह जनाब के सभी 11 प्रश्नों के उत्तर यहाँ

निरामिष: पशुबलि-कुरबानी , शाकाहार-मांसाहार , वैचारिक बहस- फ्री फॉर ऑल धर्मयुद्ध... बीचों-बीच फंसे (प्रवीण शाह) जिनके जेहन से उठते ११ सवाल... और उत्तर देंगे हम।