Monday, November 22, 2010

जीव हत्या और मांसाहार satish chand gupta

‘सत्यार्थ प्रकाश’ में स्वामी जी ने न केवल मांसाहार का निशेध किया है बल्कि यह भी कहा है कि मांसाहारी मनष्‍यों  का संग करने व उनके हाथ का खाने से आर्यों को भी मांस खाने का पाप लगता है। यह भी लिखा है कि पशुओं को मारने वालों को सब मनुष्‍यों  की हत्या करने वाला जानिए। (10-25) एक आर्य समाज के विद्वान से कुछ खास विषयों पर चर्चा हुई, उन्होंने कहा कि मैं तुम्हारी अन्य सारी बातें मानने को तैयार हूँ मगर जीव हत्या कर मांस खाने को मैं धर्मशास्त्र व मानव प्रकृति के अनुकूल नहीं मानता। निरीह, मूक पशु-पक्षियों को काट कर खाना न केवल निंदित व निषिद्ध है, बल्कि जघन्य अपराध भी है।
उन्होंने यहां तक भी कहा कि जो कौमे पशुओं को ज़िब्ह करती हैं, वो कट्टर, बेदर्द और बेरहम हो जाती हैं और उन कौमों को फिर मनुष्‍यों को मारने व काटने में कोई दया व हिचक महसूस नहीं होती। मैंने उनसे पूछा कि जो लोग भ्रूण हत्या कर रहे हैं, अपनी ही निरीह, मूक व निपराध संतान की पेट में ही टुकड़े-टुकड़े कराकर निर्दयता के साथ हत्या करा रहे हैं क्या उनकी यह कट्टरता पशुओं को ज़िब्ह करने व मांस खाने का परिणाम हैं ? क्या इससे अधिक कट्टरता व बेरहमी कोई और हो सकती है ? क्या यह मनुष्‍्य की बेदर्दी की पराकाष्‍ठा नहीं है ?

मैंने उनसे पूछा कि आप बताइए “शेर मांस क्यों खाता है ? उन्होंने कहा कि जानवरों में बुद्धि नहीं होती, उनको अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं होता। अगर मनुष्‍य भी ऐसा ही करता है तो फिर उसमें व जानवरों में अंतर ही क्या रहा ? मैंने उनसे कहा कि हाथी मांस नहीं खाता तो क्या वह बुद्धिमान होता है ? उन्होंने दोबारा अपनी बात बड़ी करते हुए कहा कि मांस तामसी भोजन है, इसको खाने से बुद्धि भी तामसी हो जाती है, ‘‘जैसा खाये अन्न वैसा हो जाए मन’’ मांस मानव बुद्धि व शरीर दोनों के लिए हानिकारक है।
मैंने उनसे कहा कि वैज्ञानिकों का बौद्धिक स्तर सबसे ऊंचा होता है, शायद ही विश्‍व में कोई वैज्ञानिक ऐसा हो जो मांस न खाता हो। क्या उनकी बुद्धि को तामसी कहा जा सकता है ? बाद में उन्होंने इस विषय को पूर्वकृत कर्मों के परिणामों से जोड़कर चर्चा समाप्त कर दी। एक अन्य आर्य समाज के विद्वान ने ‘‘आतंकवाद, समस्या व समाधान’’ विषय पर बोलते हुए कहा कि आतंकवाद का प्रमुख कारण मांसाहार है। तामसी भोजन खाने से बुद्धि तामसी हो जाती है फिर मनुष्‍य को आतंक ही सूझता है। अगर विश्‍व में मांसाहार पर पाबंदी लगा दी जाए तो आतंकवाद की समस्या का समाधान हो सकता है। उनका इशारा तो एक विशेष क़ौम की तरफ़ था, मगर मांस तो विश्‍व  की सभी क़ौमे खाती हैं। 
वनस्पति वैज्ञानिक अनेक शोधों द्वारा इस अंतिम निश्‍कर्ष पर पहुंच गए हैं कि पेड़-पौधों में भी जीवन होता है। स्वामी दयानंद सरस्वती ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में लिखा है कि मनुष्‍य, पशु व पेड़-पौधों आदि में जीव एक जैसा है जो कर्मानुसार एक योनि से दूसरी योनि में आता जाता रहता है। (9-75) इसलिए न तो केवल पशु-पक्षियों आदि को खाना महा पाप हुआ बल्कि पेड़-पौधों को खाना भी जघन्य अपराध हुआ।

पशु-पक्षियों को अगर ज़िब्ह किया जाए तो वे अपना विरोध प्रकट कर सकते हैं, मगर पैड़-पौधों से अधिक लाचार व बेबस और कौन होगा जो अपना विरोध तक प्रकट नहीं कर सकते ? उनको काटना व खाना तो और भी अधिक पाप होगा। तो क्या शाक सब्जियों व फलों आदि को भी नहीं खाना चाहिए। अब अगर हम विज्ञान के सत्य को झुठला भी दें कि पेड़- पौधों में जीवन नहीं है तो क्या हम यह भी झुठला सकते हैं कि जिन शाक-सब्जियों व फलों को हम खाते हैं उनको उत्पन्न करने में कितनी बड़ी संख्या में जीवों की हत्या होती है ?

एक आम के पेड़ पर लगने वाला कड़ी कीड़ा लाखों-करोड़ों की तादाद में होता है। ईख व ज्वार की फ़सल पर लगने वाला पाइरिल्ला एक हेक्टेयर खेत में अरबों-खरबों की तादाद में होता है। चने आदि की फ़सल को लगने वाली सूंडियां व गिडारें कुछ ही दिनों में पूरी फ़सल नष्‍ट कर देती हैं। असंख्य जीवों की हत्या कर किसान गोभी, बैगन, शाक-सब्ज़ी उत्पन्न करता है। अनेक बीमारियों से बचने के लिए हम कीटनाशकक दवाएं प्रयोग करते हैं। घरों में महिलाएं मक्खी, मच्छर, जूं व रसोई घर में रखे दाल, चावल, गेहूं आदि में पैदा होने वाले कीड़ों को मारने में कोई झिझक अथवा ग्लानि महसूस नहीं करती। क्या इन सब जीवों को मारना जीव हत्या के दायरे में नहीं आता ? क्या इन सबसे बचा जा सकता है ? क्या भैंस, गाय, बकरी आदि को मारने ही को जीव हत्या कहते हैं?

यह भी विचारणीय है कि हिंदू संगठन केवल गो-हत्या का विरोध करते हैं, जबकि ऊंट, भैंस, बकरा, मछली आदि भी गाय जैसे ही जीव हैं। यह भी विचारणीय है कि एक तरफ़ तो जीव को आदि अमर व अजर बतलाते हैं दूसरी तरफ जीव हत्या की बात करते हैं। यह भी विचारणीय है कि एक तरफ़ तो कर्मानुसार फल भोग की बात करते हैं दूसरी तरफ जीव हत्या को पाप व जघन्य अपराध की संज्ञा देते हैं। अफ़सोस इस बात का है कि धर्मशास्त्र व विज्ञान दोनों की अनुमति के बावजूद भी इस विषय को विवाद का विषय बनाया गया व बनाया जा रहा है और कुछ मांस खाने वाले हिंदू भाई भी रुग्ण मानसिकता का शिकार होकर मांसाहार का विरोध कर रहे हैं।

हमारे एक साथी जो मांसाहार का पुरजोर विरोध करते हैं, बारह ज्योति-लिंगों के दर्शन हेतु भारत भ्रमण पर निकले। वापसी होने पर यात्रा के सभी पहलुओं पर विस्तार से चर्चा हुई। चर्चा के दौरान उन्होंने बताया कि दक्षिण भारत के लोग उत्तरी भारत की अपेक्षा अधिक धार्मिक प्रवृत्ति के हैं। मैंने उनसे पूछा कि दक्षिण भारत के लोग मांसाहारी होते हैं और आपके अनुसार मांस खाना पाप व अधार्मिक कृत्य है तो फिर वे लोग धार्मिक कहाँ, पापी हैं। उन्होंने अपनी बात बड़ी करते हुए कहा कि दक्षिणी भारत की भौगोलिक परिस्थितियां ही कुछ ऐसी हैं कि वहां मांस खाने को पाप नहीं कहा जा सकता। ये विचार किसी आम व्यक्ति के नहीं बल्कि वर्ग विशेष में अपनी एक खास पहचान रखने वाले व्यक्ति के हैं।

अनेक बीमारियों की दवाएं ऐसी हैं जिनको अनेक पशु-पक्षियों के अंशों  से बनाया जाता है। कुछ खास बीमारियां जैसे - सांस, क्षयरोग आदि में चिकित्सक बकरा, मछली व पक्षियों आदि का मांस खाने की सलाह देते हैं। किसानों की अत्याधिक मांग पर उत्तर प्रदेश सरकार ने नील गाय को नील घोड़ा नाम देकर मारने के शसनादेश जारी किए हैं, ताकि वे किसानों की खड़ी व पकी फ़सल को बरबाद न करें। चूहों से फसल को बचाने के लिए सरकार गीदड़ों की व्यवस्था करती है। भारत के कई राज्यों जैसे तमिलनाडु, पश्चिमी बंगाल व उत्तराखण्ड आदि में गैर-मुस्लिम समाज में बलि की प्रथा प्रचलित है जो बड़ी निर्दयता व निर्भयता से की जाती है। नेपाल में वीरगंज के समीप गढ़ी माई मंदिर में हर वर्ष  करीब 200000 (दो लाख) पशुओं की बलि दी जाती है। नाहन (सिरमौर) गिरिपार में माघी के दिन हर वर्ष हजारों बकरों की बलि दी जाती है। झारखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री मधुकोडा की पत्नी गीता कोडा ने रांची के रजप्पा मंदिर में 11 बकरों की बलि दी (अमर उजाला, 7.11.2009)।

यह भी विचारणीय है कि जो पशु-पक्षी खाने में इस्तेमाल किए जाते हैं उनकी संख्या में कोई कमी नहीं देखी जा रही है। संख्या के एतबार से देखा जाए तो मछली विश्‍व  में सबसे अधिक खाई जाती है मगर मछली का उत्पादन बढ़ता ही जा रहा है। कुछ जीव जैसे शेर, हाथी आदि खाने में इस्तेमाल नहीं होते, उनकी संख्या दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है। यह भी विचारणीय है कि विश्‍व  में बहुत से देश ऐसे हैं जो केवल पूरी तरह मांसाहार पर ही निर्भर हैं। ग्रीन लैंड और उत्तरी अमेरिका में समुद्र तटों पर बसने वाली जाति स्कीमों की रोटी, कपड़ा और मकान आदि मानव जीवन की मूलभूत आवश्‍यकताओं की पूर्ति समुद्री जीवों द्वारा ही होती है। उनका जीवन पूर्णतः मांस पर ही निर्भर है।
यह भी विचारणीय है कि नन्हीं-सी चींटीं व मकड़ी मांसाहारी होती है, जबकि विशालकाय हाथी व ऊँट मांसाहारी नहीं होते। बहुत से मध्यम ऊँचाई के पेड़-पौधे मांसाहारी होते हैं, जबकि विशालकाय वट व पीपल वृक्ष मांसाहारी नहीं होते। बगुले को केला व सेब और छिपकली को हम दाल व चावल खाना नहीं खिला सकते। अगर हमें विश्‍वास है कि कोई सृष्टिकर्ता है तो यह उसी की व्यवस्था है। पृथ्वी पर कोई भी जीव अथवा पौधा मनुष्‍य  जाति का मोहताज नहीं है। पीपल, तुलसी, चींटी, बंदर व गाय आदि मनुष्‍य  की वजह से जीवित नहीं हैं, मगर मनुष्‍य इन सबके बिना जीवित नहीं रह सकता। सभी जीव-जन्तु व पेड़-पौधे मनुष्‍य जाति की आवश्‍यकता है। वास्तविकता भी यह है कि सृष्टिकर्ता ने इन सबको पैदा ही मनुष्‍य जाति के उपयोग के लिए किया है।

स्वामी जी ने मांसाहारी मनुष्‍यों  को इतना अधिक मलेच्छ, अछूत, घृणित व पापी माना है कि उनके संग करने मात्र से आर्यों को भी मांस खाने का पाप लगने की सम्भावना व शंका व्यक्त की है, तो क्या मांसाहारी मनुष्‍यों  का संग करने से बचा जा सकता है ? दूसरी बात बिना जीव हत्या के गेहूं, शाक-सब्जी व फल आदि को पैदा नहीं किया जा सकता, अगर हम कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल न भी करें फिर भी खेत जोतने-खोदने में ही असंख्य जीवों की हत्या होती है, तो क्या बिना गेहूं, शाक-सब्जी व फल आदि खाये बिना मनुष्‍य जिन्दा रह सकता है ? क्या ये आदर्श व सिद्धान्त तार्किक व व्यावहारिक हैं?

स्वामी जी ने मनुष्‍य, पशु व पेड़-पौधों में जीव एक जैसा बताया है, फिर तो स्वामी जी के मतानुसार पेड़-पौधों को न केवल खाना बल्कि काटना भी पाप व अपराध हुआ, क्योंकि जिन पेड़-पौधों को हम काट रहे हैं, हो सकता है उनमें हमारे ही किसी सगे-संबंधियों की आत्मा विद्यमान हो।

स्वामी जी की दोनों बातें वेद विरूद्ध तो है हीं, अव्यावहारिक व अतार्किक भी हैं। मांस खाना धर्म शास्त्र व चिकित्सा विज्ञान दोनों की दष्टि से मानव के लिए लाभकारी भी है और मानव की प्रकृति के अनुकूल भी। यह अलग विषय है कि किस पशु-पक्षी का मांस खाया जाए और किसका न खाया जाए तथा किस विधि से काटा जाए। दूसरी बात मानव, पशु व पेड़- पौधों में जीव भी एक जैसा नहीं है, मानव की जीवात्मा कर्म करने में स्वतंत्र व ईश्‍वर के प्रति जवाबदेह है, जबकि पशु व पेड़-पौधे आदि स्वभाव से बंधे हैं, न उन्हें अच्छे-बुरे का ज्ञान है और न ही किसी प्रकार की कोई स्वतंत्रता।

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