Monday, November 22, 2010

प्राचीन भारत में गोहत्‍य एवं गोमांसाहार

पंडित पांडुरंग वामन काणे ने लिखा है ''ऐसा नहीं था कि वैदिक समय में गौ पवित्र नहीं थी, उसकी 'पवित्रता के ही कारण वाजसनेयी संहिता (अर्थात यजूर्वेद) में यह व्यवस्‍था दी गई है कि गोमांस खाना चाहिए'' --धर्मशास्‍त्र विचार, मराठी, पृ 180)


महाभारत में गौ
गव्‍येन दत्तं श्राद्धे तु संवत्‍सरमिहोच्यते --अनुशासन पर्व, 88/5
अर्थात गौ के मांस से श्राद्ध करने पर पितरों की एक साल के लिए तृप्ति होती है


मनुस्मृति में
उष्‍ट्रवर्जिता एकतो दतो गोव्‍यजमृगा भक्ष्‍याः --- मनुस्मृति 5/18 मेधातिथि भाष्‍य
ऊँट को छोडकर एक ओर दांवालों में गाय, भेड, बकरी और मृग भक्ष्‍य अर्थात खाने योग्‍य है

महाभारत में रंतिदेव नामक एक राजा का वर्णन मिलता है जो गोमांस परोसने के कारण यशवी बना. महाभारत, वन पर्व (अ. 208 अथवा अ.199) में आता है
राज्ञो महानसे पूर्व रन्तिदेवस्‍य वै द्विज
द्वे सहस्रे तु वध्‍येते पशूनामन्‍वहं तदा
अहन्‍यहनि वध्‍येते द्वे सहस्रे गवां तथा
समांसं ददतो ह्रान्नं रन्तिदेवस्‍य नित्‍यशः
अतुला कीर्तिरभवन्‍नृप्‍स्‍य द्विजसत्तम ---- महाभारत, वनपर्व 208 199/8-10

अर्थात राजा रंतिदेव की रसोई के लिए दो हजार पशु काटे जाते थे. प्रतिदिन दो हजार गौएं काटी जाती थीं
मांस सहित अन्‍न का दान करने के कारण राजा रंतिदेव की अतुलनीय कीर्ति हुई.
इस वर्णन को पढ कर कोई भी व्‍यक्ति समझ सकता है कि गोमांस दान करने से यदि राजा रंतिदेव की कीर्ति फैली तो इस का अर्थ है कि तब गोवध सराहनीय कार्य था, न कि आज की तरह निंदनीय

रंतिदेव का उल्‍लेख महाभारत में अन्‍यत्र भी आता है. शांति पर्व, अध्‍याय 29, श्‍लोक 123 में आता है कि राजा रंतिदेव ने गौओं की जा खालें उतारीं, उन से रक्‍त चूचू कर एक महानदी बह निकली थी. वह नदी चर्मण्‍वती (चंचल) कहलाई.

महानदी चर्मराशेरूत्‍क्‍लेदात् संसृजे यतः
ततश्‍चर्मण्‍वतीत्‍येवं विख्‍याता सा महानदी

कुछ लो इस सीधे सादे श्‍लोक का अर्थ बदलने से भी बाज नहीं आते. वे इस का अर्थ यह कहते हैं कि चर्मण्‍वती नदी जीवित गौओं के चमडे पर दान के समय छिडके गए पानी की बूंदों से बह निकली.
इस कपोलकप्ति अर्थ को शाद कोई स्‍वीकार कर ही लेता यदि कालिदास का 'मेघदूत' नामक प्रसिद्ध खंडकाव्‍य पास न होता. 'मेघदूत' में कालिदास ने एक जग लिखा है

व्‍यालंबेथाः सुरभितनयालम्‍भजां मानयिष्‍यन्
स्रोतोमूर्त्‍या भुवि परिणतां रंतिदेवस्‍य कीर्तिम

यह पद्य पूर्वमेघ में आता है. विभिन्‍न संस्‍करणों में इस की संख्‍या 45 या 48 या 49 है. इस का अर्थ हैः ''हे मेघ, तुम गौओं के आलंभन (कत्‍ल) से धरती पर नदी के रूप में बह निकली राजा रंतिदेव की कीर्ति पर अवश्‍य झुकना.''

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http://www.scribd.com/doc/24669576/प्राचीन-भारत-में-गोहत्‍या-एवं-गोमांसाहार-India-Cow

3 comments:

Adarsh Kumar Patel said...

आपको पहले संस्कृत सीखनी चाहिए... आपको गव्य और गो में अंतर नहीं लगता क्या.....

संजय राणा said...

मुल्ले पहले संस्कृत सीख ले फिर बात करना तुझे मालूम तो है गव्य और गो में अंतर क्या है, अंधा है या फिर दिमाग में गव्य भरा हुआ है हरामखोर कहीं का !

HaLaaaL हलाल said...

बच्‍चों यह निम्‍न पुस्‍तक से नकल किया गया है,
पुस्तकः 'क्या बालू की भीत पर खडा है हिंदू धर्म?'
862 पृष्ठ मूल्य 175 रूपये
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कुछ मुल्‍लाओं की सुन लो क्‍या कहते हैं

‘‘गऊ रक्षा और हिन्दुस्तानी मुसलमान’’ मौलाना अब्दुल करीम पारेख का भाषण नागपुर में 1977 ई. में आयोजित उच्च स्तरिय कांफ्रेंस

http://www.scribd.com/doc/59272086/gao-raksha-aur-hindustani-musalman-Lecture-Maulana-Parekh